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शांतिनिकेतन का “कालो बाड़ी” - एक अमूल्य संपदा

 

कवि गुरु रवीन्द्रनाथ के साकार स्वप्न 'शांतिनिकेतन' का सबसे महत्वपूर्ण अंग है - कला भवन । यह गुरुवर नंदलाल बोस के द्वारा संचालित किया गया था । पूरे शांतिनिकेतन में उनकी कलाकृतियाँ भरी पड़ी हैं । प्रस्तुत है उनकी एक कलात्मक धरोहर की झांकी ।

           कला भवन के आहाते में घुसते ही सहसा एक काला सा मिट्टी का बना घर सबका ध्यान आकृष्ट कर लेता है । आखिर यह है क्या ? यह कला भवन के स्नातकोत्तर वर्ग के छात्रों का छात्रावास है । शुरू-शुरू में भी यह छात्रावास ही था । करीब अस्सी वर्ष पहले का बना यह घर सब के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है । जब नए छात्रावास बने तो इसे तोड़ देने का निश्चय किया गया, किन्तु गुरुवर नंदलाल बोस ने इसे तोड़ने नहीं दिया । फलस्वरूप यह आज तक अपने सौन्दर्य का प्रदर्शन करता हुआ खड़ा है ।

पहले इसका छत फूस का था इसे प्रतिवर्ष मरम्मत करवाना पड़ता था तथा जहां-तहां पानी घुसने के कारण इसकी दीवार भी खराब होने लगी । अतः बाद में इस पर एस्बेस्टस की छत लगा दी गयी । इसकी दीवार लगभग तीन फीट मोटी है, जिसके कारण शांतिनिकेतन की प्रचंड गर्मी भी कमरे में अपना असर नहीं दिखा पाती । इसकी खिड़कियाँ दीवार में भीतर की ओर से लगी हैं, जो एक तो पानी से खराब होने से भी बची है और बाहर दीवार पर बने भित्ति कला को भी सौन्दर्य विहीन नहीं करती । चारों ओर दीवार में मिट्टी की मूर्तियाँ बनी है । इसे कला की भाषा में 'रिलीफ़' कहा जाता है । इन्हे नंदलाल बोस, राम किंकर बैज तथा उनके अनेक शिष्यों ने मिलकर बनाया है । जब हम इसे देखना शुरू करते हैं तो इसके कुछ अंश हमें काफी प्रभावित करते हैं । पहले मुख्य द्वार के दाहिनी ओर में एक बूढ़ा जो राम-राम जपता हुआ इस गाँव से उस गाँव घूमता है, उसने एक बंदर पाल रखी है जो उसके पीठ पर है। बूढ़े के हाथ में एक हुक्का है, वह फिर शायद कहीं जा रहा है का चित्रण किया गया है । इसके आस पास तथा पार्श्व में बीरभूम जिले का प्रधान पेड़ - ताड़ तथा छातिम आदि वातावरण को मनमोहक बना देते हैं । इसके बाद मयूर, शृंगार रत नायिका आदि का चित्रण है, फिर एक घायल सिंह बना है जो घायल होते हुए भी अपनी पूरी शक्ति से गरजता हुआ खड़ा है । यह एशिरीयन शैली का है । एक बार फिर हम पाते हैं बीरभुम की विशेषता खजूर का पेड़ और उसपर लटकते बंदर । काफी सरल किन्तु कला से परिपूर्ण । अब आती है बारी राजस्थानी जहाज़ यानी ऊँट की । लेकिन यह यहाँ की चीज़ नहीं है । शायद किसी समय ऊँट यहाँ आया हो जिसकी विचित्र बनावट से प्रभावित हो कलाकार मिट्टी पर उसका स्वरूप उकेर दिया हो।   फिर हड़प्पा के सांढ़ की प्रतिकृति का दर्शन होता है जो अपनी बलिष्ठता और सभ्यता के आरंभ का प्रतीक बना खड़ा है । इसके बाद इजिप्शियन शैली में बनी एक कृति तथा साथ ही 'भारहुत' के स्तूप की यक्षी जो अपने शारीरिक सौन्दर्य का प्रदर्शन करती  है । दक्षिण भारतीय शैली में बनी राम की मूर्ति भी काफी आकर्षक है । इन दोनों कृतियों के बीच एक भित्ति चित्र भी हैं जो अब प्रायः नष्ट हो गई  है । अब आता है परंपरागत भारतीय कला का नमूना यानि गुफा मंदिरों में बनी मूर्तियों का प्रतिरूप । इसके बीच-बीच में बना है पश्चिम बंगाल का प्रसिद्ध लोक कलाकार 'बाउल' तथा धार्मिक ग्रन्थों के कथाओं पर आधारित भित्ति मूर्ति । एक माँ तथा बच्चे की मूर्ति काफी दिलचस्प हैं जिसे भीतर की ओर खोद कर बनाया है जो काफी मनोहारी है ।

ये सब बड़े ही सुसज्जित ढंग से बने हैं, जिन्हें देखने पर कलाकार की कार्यकुशलता तथा बुद्धि विवेक पर आश्चर्य किए बिना नहीं रहा जा सकता । भारत के विभिन्न प्रान्तों तथा पाश्चात्य शैलियों में बने इन कृतियों में विश्व एकता का संदेश धरा जान पड़ता है । इतना कुछ कलात्मकता रहने के बावजूद इसे काला कर दिया है क्योंकि काला रंग किसी भी चीज़ का भारीपन का बोध कराता है । यह रंग इसका स्थापत्य तथा मूर्तियों में विशालत्व तथा भारीपन प्रकट कराता है और दूसरी बात कि काले रंग के गंदा होने का भय भी कम होता है । किन्तु यह रंग नहीं वरन् कोलतार है जो पानी से भी इसकी सुरक्षा करता है ।

यही है 'कालो-बाड़ी' यानि चलाऊ भाषा में 'ब्लैक हाउस' का संक्षिप्त परिचय जो हमें  'मास्टरमोशाय' की याद दिलाता है । आरंभ में इसका नाम 'सप्तपर्णी' रखा गया था कारण था सप्तपर्णी अर्थात छातिम के पेड़ के नीचे बना होना किन्तु समय परिवर्तन के साथ-साथ इसका नाम भी बदल गया है । हालाँकि यह अब जहां-तहां से खराब होने लगा है । अब आवश्यकता है इसके मरम्मत की, नहीं तो यह अमूल्य सम्पदा शीघ्र ही समाप्त हो जाएगी।

संजय कुमार सिंह

 27 नवंबर 1986

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